Wednesday, 30 June 2010

सागर का मध्य,
ऊपर से इतना शांत,
कि सतह पर तैरती मछलियाँ उड़ते परिंदों का चारा बन जायें,
मगर अन्दर इतनी हलचल,
कि स्थिरता का कोई नाम-ओ-निशान नहीं.


कोहरा, बेइन्तेहाँ घना कोहरा
इतना घना, इतना काला
कि सामने वाला भी दिखाई न दे,
मगर उसी कोहरे में छोटी-छोटी अनगिनत ओस कि बूंदें,
उल्लास से मचलते हुए बरसने को तत्पर


शांति और हलचल,
घनत्व और उल्लास,
दोनों पहलु इतने पृथक, मगर उतने ही करीब,
दोनों के प्रतिबिम्ब इतने करीब,
मगर अस्तित्व उतने ही पृथक


मन विचलित भी, शांत भी,
घना भी, पुलकित भी
इन्ही विविध पृथक पहलुओं से घिरा
दुविधा में मेरा मन
इन पहलुओं का आधार टटोलता जा रहा है

Friday, 21 May 2010

हौसले कम न होंगे

कितनी ही मुश्किलें क्यूँ न आ जायें,
हौसले मगर कम न होंगें,
हालात भले कितनी ही दफे गिराए न क्यूँ हमें,
हम गिरेंगे, गिरते रहेंगे और गिरके फिर उठेंगे.

ये दुनिया, ये ज़िन्दगी भी गर बन जाये दुश्मन हमारे,
हौसलों में मगर कमी न आएगी हमारी,
सौ बार ही हराए न ये क्यूँ हमें,
सौ न सही, एक बार तो हम इसे ज़रूर हराएंगे.

गर हम उनसे जीत भी न पाएं तो क्या?
हार कर भी ये बाज़ी हम उससे जीत जायेंगे,
क्यूंकि यूँ बार बार गिरना, उठना, फिर गिर जाना, फिर उठ जाना,
इससे परेशान होकर वो खुद एक दिन अपना रास्ता बदल जायेंगे.

Monday, 22 February 2010

ज़िन्दगी

कभी किसी का सहारा बन गए,
तो कभी किसी का सहारा ले लिया,
कुछ इस तरह से फलसफा-ए-ज़िन्दगी
निभाते चले गए.

हर मोड़ पे,
ज़िन्दगी लेती रही इम्तेहाँ,
हम हौसले बुलंद किये,
अपना जिगरा दिखाते चले गए.

ग़म का बाज़ार गरम था,
निकल पड़े हम भी, इतराते हुए, उन गलियों से,
ग़म रश्क खाके गिरते गए,
और हम मुस्कुराते चले गए