Monday, 26 December 2011

हसरत

हसरत तो थी के आसमां को छूलूं,
बादल की बाहों में खेलूं,
चाँद को अपनी आगोश में लेलूं,
तारों को अपनी झोली में भर लूँ |


मगर हसरतें तो आखिर हसरतें ही होती हैं,
ख्वाहिशों के बाज़ार में सज-धज के निकला करती हैं,
ढूंढती हैं ये अपने मीत 'हकीक़त' को,
नहीं मिलता तो रो-रो कर बिखर जातीं हैं |


हसरत की कहानी भी बड़ी अजब होती है,
सारी ज़िन्दगी हकीक़त को ढूंढा करती हैं,
जब हो जाती है उनकी मुलाक़ात हकीक़त से,
तो हसरत नहीं ये कहलाती हैं || 

Wednesday, 21 December 2011

अपना दर्द आप ही सहना होता है

तू कहता है कि तू मेरा अपना है,
तू कहता है कि मेरा दर्द समझता है,
चाहे तू कितना ही अपना हो, कितना ही समझता हो,
अपना दर्द तो आप ही सहना होता है |


चिलमिलाती धुप की चुभन,
भले खजूर के पेड़ के नीचे वाली रेत समझती है,
वो चाहे कितनी ही अपनी है, कितना ही समझती है,
मगर असल में बिन छाँव वाली रेत को ही तड़पना होता है |


भले पिता कहदे,
तेरी माँ का हर दर्द मैं समझता हूँ,
चाहे वो कितने ही अपने हों, कितना ही समझते हों,
प्रसव की पीड़ा तो माँ को ही सहना होता है |

Thursday, 15 December 2011

मायूसी

जाने कौन सा तीर,
दिल में चुभ रहा है,
भरी भरी सी महफ़िल है,
मगर दिल करहा रहा है ||


एक अजीब सा डर,
बस गया है जीवन में,
आसपास का अँधेरा,
कहीं भर न जाए जीवन में ||


अपनों के बीच भी,
गैरों सा महसूस होता है,
जैसे पेड़ पर कीड़ लगा पत्ता,
अपनों के बीच भी अकेला ही रहता है ||


ऐसा लगता है मानो,
किसी को हमारी नहीं है ज़रूरत,
बस देखते ही, बनावटी मुस्कान देना,
बन गयी है शायद लोगों की आदत ||


यही मुस्कान तो हमें,
कर देती है सबसे कटा-छंटा,
मानो कह रही हो हमसे,
'अब कह भी दो अलविदा ' ||


कहीं ये मेरा भ्रम तो नहीं,
जो गैरों को अपना समझ रही हूँ,
इतनी मायूसी, इतना डर,
खामखाँ गले लगा रही हूँ ||


अगर ये मेरा भ्रम है,
तो तोड़ दे इसे हे मेरे अंतरमन !
जीना चाहती हूँ मैं,
छोड़कर मायूसी का दामन ||

Friday, 9 December 2011

स्वतंत्र भारत - एक सपना


सपना था सभी भारतियों का,
भारत बने एक स्वतंत्र देश,
विकास के पर लगाके उड़े,
पीछे छोड़ जाए सारे देश ||१||


हिन्दू, मुस्लिम, सिख इसाई,
सब ने तत्परता दिखलाई थी,
सुभाष की एक पुकार में,
सारी जनता दौड़ी चली आई थी ||२||


तिलक, अशफ़ाक, राजगुरु, 
का बलिदान खाली न गया,
सुभाष, गाँधी, नेहरु,
की आवाज़ ने भी काम किया ||३||


फिर उगा एक दिन,
आज़ादी का सूरज बड़ी शान से,
फूले न समाते थे लोग,
फिरंगी को भगा दिया जो हिन्दुस्तान से ||४||


अरे, ये क्या  ?
भारत फिर बन गया ग़ुलाम,
अपनों ने ही अपनों को लुटा,
किया भारत को बदनाम ||५||


कहाँ गया गांधी का भारत,
कहाँ राम-राज का सपना,
'हम', 'हमारा' बस शब्द बनकर रह गए,
सूझता है लोगों को बस अपना अपना ||६||


दल-बदलू हमारे नेता बने,
जिनके हाथ है राष्ट्र की कमान,
सरे-आम निलाम हो रही है भारत माँ,
रोते-रोते हो गयी, पत्थर सामान || ७||


शतरंज की बाज़ी में देखो,
किसने खोया, किसने पाया,
मायावती ने यु.पि को दबोचा,
लालू ने बिहार को खाया ||८||


तोगड़िया की राजनीति ने,
चढ़ा दी मुसलमानों की बलि,
हाय रे मति ! सुभाष तेरे देश में,
हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की क्या हो गयी गति ||९||


ठाकरे ने अपनी निति चलाई,
उधर बंगाल में ममता चिल्लाई,
पर्लिअमेंट को समझते हैं खेल का मैदान,
खेलते हैं वहां कुत्ते-बिल्ली की लड़ाई ||१०||


न जाने नया सूरज,
कैसे खिलाडी दिखलाता है,
स्वच्छ और उन्नत भारत का सपना,
अब तो अधुरा ही लगता है ||११||

Note:
This poem was written in the year 2002-03. 

Tuesday, 6 December 2011

चाहत और किस्मत

फूल खिलता है सूरज की पहली किरण के साथ,


तमन्ना होती है उसकी,


कि किसी दुल्हन के सेहरे में सजुं,


किसी देव के चरणों में चढूं,


कौन जाने उस फूल कि किस्मत उसे कहाँ ले जाये,


किसी दुल्हन के सेहरे के बजाये, मय्यत पे सजाये,


देव के चरण स्पर्श करने को मिले न मिले,


हो सकता है कि यूँही खड़े खड़े धुल में मिल जाये,


किस्मत कि कश्ती में सवार होकर फूल यूँही सफ़र करता है,


ज़िन्दगी के समंदर में आये हर तूफ़ान को झेल कर आगे बढ़ता है,


हसरतें उसकी ग़र पूरी भी न हों,


शाम ढलने पर मगर किस्मत को ही झुककर सलाम करता है ||