Wednesday 30 June 2010

सागर का मध्य,
ऊपर से इतना शांत,
कि सतह पर तैरती मछलियाँ उड़ते परिंदों का चारा बन जायें,
मगर अन्दर इतनी हलचल,
कि स्थिरता का कोई नाम-ओ-निशान नहीं.


कोहरा, बेइन्तेहाँ घना कोहरा
इतना घना, इतना काला
कि सामने वाला भी दिखाई न दे,
मगर उसी कोहरे में छोटी-छोटी अनगिनत ओस कि बूंदें,
उल्लास से मचलते हुए बरसने को तत्पर


शांति और हलचल,
घनत्व और उल्लास,
दोनों पहलु इतने पृथक, मगर उतने ही करीब,
दोनों के प्रतिबिम्ब इतने करीब,
मगर अस्तित्व उतने ही पृथक


मन विचलित भी, शांत भी,
घना भी, पुलकित भी
इन्ही विविध पृथक पहलुओं से घिरा
दुविधा में मेरा मन
इन पहलुओं का आधार टटोलता जा रहा है